समान नागरिक संहिता के नाम पर भेदभाव क्यों यदि अनुसूचित जनजातियों को संविधान विधेयक से छूट दी जा सकती है तो मुसलमानों को क्यों नहीं शरीयत के खिलाफ कोई भी कानून हमें मंजूर नहीं
धार्मिक धुर्वीकरण करने में माहिर मोदी की भाजपा अपने दस साल के कार्यकाल में जनहित के मुद्दों पर ना काम करती और ना बात करती उसे यकीन है कि अगर वह मुद्दों पर बात करेगी तो चुनाव हार जाएगी यही वजह है कि वह समय पर कुछ भी ऐसा करने की कोशिश करती है जिससे माहौल दुषित हो जाए और वह कामयाब हो जाती हैं।
उत्तराखण्ड में समान नागरिक संहिता लागू करने के राज्य सरकार के फैसला पर अध्यक्ष जमीअत उलमा-ए-हिंद मौलाना अरशद मदनी ने अपनी कडी़ प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि हमें कोई ऐसा कानून स्वीकार्य नहीं जो शरीयत के खिलाफ हो, क्योंकि मुसलमान हर चीज़ से समझौता कर सकता है, अपनी शरीयत से कदापि कोई समझौता नहीं कर सकता।
सच तो यह है कि किसी भी धर्म को मानने वाला अपने धार्मिक कार्यों में किसी प्रकार का अनुचित हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि आज उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता पारित की गई हैए जिसमें अनुसूचित जनजातियों को संविधान के अनुच्छेद जो 366ए अध्याय 25ए उपधारा 342 के तहत नए कानून से छूट दी गई है। और यह तर्क दिया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उन के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की गई है।
मौलाना मदनी ने सवाल उठाया कि यदि संविधान की एक धारा के तहत अनुसूचित जनजातियों को इस कानून से अलग रखा जा सकता है तो हमें संविधान की धारा 25 और 26 के तहत धार्मिक आज़ादी क्यों नहीं दी जा सकती है जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों को मान्यता देकर धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है।
तो इस प्रकार देखा जाए तो समान नागरिक संहिता मौलिक अधिकारों को नकारती है यदि यह समान नागरिक संहिता है तो फिर नागरिकों के बीच यह भेदभाव क्यों उन्होंने यह भी कहा कि हमारी कानूनी टीम बिल के कानूनी पहलुओं की समीक्षा करेगी जिसके बाद कानूनी कार्रवाई पर फैसला लिया जाएगा ।
उन्होंने कहा कि भारत जैसे बहुधर्मी देश में जहां विभिन्न धर्मों के मानने वाले सदियों से अपनी अपनी धार्मिक मान्यताओं का पूरी आजादी के साथ पालन करते हैं वहां समान नागरिक संहिता संविधान में नागरिकों को दिए गए मूल अधिकारों से टकराता है।
मुसलमानों के पर्सनल लाॅ का नहीं बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान को अपनी हालत में बाकी रखने का है, क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और संविधान में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह हैं कि देश का अपना कोई धर्म नहीं है, इसलिए समान नागरिक संहिता मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य है और देश की एकता और अखण्डता के लिए भी हानिकारक है।
समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए धारा 44 को प्रमाण के रूप में प्रसतुत किया जाता है और यह प्रोपेगंडा किया जाता है कि समान नागरिक संहिता की बात तो संविधान में कही गई है जबकि धारा 44 दिशानिर्देश नहीं है, बल्कि एक सुझाव है, लेकिन संविधान की धारा 25, 26 और 29 का कोई उल्लेख नहीं होता जिनमें नागरिकों के मूल अधिकारों को स्वीकार करते हुए धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, इस तरह देखा जाए तो समान नागरिक संहिता मूल अधिकारों को नकारता है, फिर भी हमारी सरकार कहती है कि एक देश में एक कानून होगा और यह कि एक घर में दो कानून नहीं हो सकते, यह अजीब बात है, हमारे यहां की आईपीसी और सीआरपीसी की धाराएं भी पूरे देश में समान नहीं हैं, राज्यों में इसका आकार तबदील हो जाता है, देश में गौहत्या का कानून भी समान नहीं है, जो कानून है वो पांच राज्यों में लागू नहीं है।
देश में आरक्षण के सम्बंध में सुप्रीमकोर्ट ने इसकी सीमा 50 प्रतिशत तय की है लेकिन विभिन्न राज्यों में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण दिया गया है। उन्होंने सवाल किया कि जब पूरे देश में सिविल लाॅ एक नहीं है तो फिर देश भर में एक फैमिली लाॅ लागू करने पर ज़ोर क्यों?
हमारा देश बहु-सांस्कृतिक और बहु-धार्मिक देश है, यही उसकी विशेषता भी है, इसलिए यहां एक कानून नहीं चल सकता। जो लोग धारा 44 का आँख बंद कर के समर्थन करते हैं वह यह भूल जाते हैं कि इसी धारा के अंतर्गत यह मश्वरा भी दिया गया है कि पूरे देश में शराब पर पाबंदी लगाई जाए, अमीर गरीब के बीच की खाई को समाप्त किया जाए,सरकार यह काम क्यों नहीं करती?
क्या यह जरूरी नहीं? सवाल यह है कि जिन बातों पर किसी का विरोध नहीं और जो सब के लिए स्वीकार्य हो सकता है, सरकार उसे करने से भागती क्यों है?
दूसरी ओर जो चीज़ें विवादास्पद हैं उसे मुद्दा बना कर संविधान का लेबल लगा दिया जाता है।
मौलाना मदनी ने कहा कि हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारे जो फैमिली लाॅ हैं वो इन्सानों का बनाया कानून नहीं है, वो कुरआन और हदीस द्वारा बनाया गया है, इस पर न्यायशास्त्रीय बहस तो हो सकती है, लेकिन मूल सिद्धांतों पर हमारे यहां कोई मतभेद नहीं।
मौलाना मदनी ने कहा कि यह कहना बिलकुल सही मालूम होता है कि समान नागरिक संहिता लागू करना नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता पर आघात लगाने की एक सोची समझी साजिश है, उन्होंने यह भी कहा कि सांप्रदायिक ताकतें नित नए भावुक एवं धार्मिक मुद्दे खड़े करके देश के अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को निरंतर भय और अराजकता में रखना चाहती है लेकिन मुसलमानों को किसी भी तरह के भय और अराजकता में नहीं रहना चाहिए।
देश में जब तक न्याय-प्रिय लोग बाक़ी हैं उनको साथ लेकर जमीअत उलमा-ए-हिंद उन ताक़तों के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखेगी, जो देश की एकता और अखण्डता के लिए ना केवल एक बड़ा खतरा है बल्कि समाज को भेदभाव के आधार पर बांटने वाली भी हैं। उन्होंने कहा कि इस देश के ख़मीर मैं हज़ारों बरस से घृणा नहीं प्रेम शामिल है, कुछ समय के लिए नफरत को सफल अवश्य कहा जा सकता है लेकिन हमें यक़ीन है कि अंततः विजय प्रेम की होनी है।
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